#MyPiece
ये किस्सा लगभग 400 बरस पुराना है जब बीजापुर के शक्तिशाली सल्तनत के तेजतर्रार सेनापति अफ़जल खान ने मराठा साम्राज्य के उदयीमान सूर्य को सबक सिखाने की पूरी तैयारी कर ली थी. अफ़जल नाम से संशय नही होना चाहिए क्योंकि ये वो वाला अफ़ज़ल नही है जिसने भारत के लोकतंत्र के सबसे बड़े मन्दिर को खून से नहलाने की कोशिश की थी लेकिन हां, लक्ष्य और विचार दोनों के एक ही प्रतीत होते हैं. जी हां तो अफ़ज़ल खान वो रणनीतिकार और योद्धा था जिसने कम समय मे ही खुद को अपनी युद्ध क्षमता और नेतृत्व शक्ति के कारण बीजापुर का एक अहम किरदार बना रखा था. और खास बात ये थी कि वो अपने हरेक अभियान पर जाने से पहले एक सूफी पीर का आशीर्वाद लेने जाया करता था लेकिन इस बार कुछ अजीब बात हो गई. इस सिलसिले को जारी रखते हुए जब उसने अपने मराठा अभियान से पहले सूफी पीर का आशीर्वाद लेना चाहा तो पीर ने इसे उसका अंतिम युद्ध करार दिया. इस से खास फर्क पड़ा नही क्योंकि कभी सिकन्दर को भी अरस्तु ने सिंधु पार करने से रोका था. इसे दम्भ कहें या खुद पर अत्यधिक आत्मविश्वास लेकिन चिंतकों को वीरों ने हमेशा ही नकार दिया है. इसलिए अफजल खान को भी आगे बढ़ना था और वो बढा. हांथी, घोड़ों, ऊंट और तरह तरह के हथियारों से सुसज्जित दस हजार तेजतर्रार सौनिकों के एक भीषण दल के नेतृत्वकर्ता ने मराठा क्षेत्र में तहलका मचा डाला. तुलजापुर (उस्मानाबाद) का भवानी मन्दिर जो कि 51 शक्तिपीठों में से एक है, उसे तहस नहस कर दिया गया और देवी की प्रतिमा उखाड़ फेंकी गई. पंढरपुर के विट्ठल मन्दिर को भारी नुकसान पहुचाया गया. अफ़जल खान के ये सब करने का एक बड़ा कारण था. कारण ये था कि शिवाजी मिल नही रहे थे.
A painting from 1920 depicting the Shivaji mortally wounding Afjal Khan.
शिवाजी ने बिना कोई सीधा युद्ध किये बीजापुर सल्तनत की नाक में दम कर रखा था. उन्होंने अपने सिपाहियों के साथ गुरिल्ला युद्ध की रणनीति बनाई थी जिसमे वो घने जंगलों, पहाड़ों और गुफाओं में छिपे रहते और असावधान दुश्मन पर अचानक धावा बोलकर उसे असहज कर चित कर देते. अबकी भी वो घने दुर्गम जंगलों से घिरे प्रतापगढ़ के किले में डेरा जमाए हुए थे. चालाक अफ़ज़ल खान जनता था कि वहां पहुंचकर आक्रमण करना उसके वश की बात नही थी और उस से भी ज्यादा चालक शिवाजी भी जानते थे कि मैदानों में निकलकर इतनी विशाल सेना का सामना करने का मतलब था कि बिना लड़े आत्मसमर्पण करना. यही कारण था कि हिंदुओं के धार्मिक आस्था के प्रतीकों को निशाना बनाया गया. अंततः धूर्त अफ़जल खान ने कृष्णाजी जो कि एक एक पुजारी थे, के द्वारा सन्धि प्रस्ताव भिजवाया.
आदिलशाही को चुनौती तो दे दी थी और एक स्थापित मुस्लिम सम्राज्य के लिए वो खतरा बन कर भी उभर रहे थे लेकिन अब तक उन्होंने कोई बड़ा युद्ध नही लड़ा था. शायद ये उनके साथ दे रहे लोगों की समझदारी कहें या अनुभव की कमी कि उन्होंने शिवाजी को आदिलशाह से समझौता करने की सलाह दी.
दिमाग के महाधनी शिवाजी ने कृष्णाजी को हिन्दू धर्म की सौगंध देकर अपने दुश्मन के असली इरादों की भनक लेनी चाही और काफी हद तक वो सफल भी हुए. एक सधी रणनीति के तहत भावी विशाल मराठा साम्राज्य के छत्रपति ने पँतजी को विरोधी खेमे में सन्धि प्रस्ताव की स्वीकृति लेकर भेजा जहां उन्होंने कुछ विरोधी खेमे के लोगों को घूस देकर अहम जानकारियां जुटाई. खैर प्रतापगढ़ के नीचे एक पहाड़ी को दोनों के मिलने का स्थान तय किया गया. शिवाजी को दुश्मन का इतिहास पता था. वो जानते थे कि इसी अफ़जल खान ने राजा कस्तूरी रँगा को सन्धि प्रस्ताव के बहाने बुलाकर धोखे से मार डाला था. इसलये उन्होंने विरोधी द्वारा प्रस्तावित बैठक स्थल को साफ नकार दिया था.
तो आइए अब देखें कि दोनों की ये बैठक कैसी रही. सहमति ये बनी की दोनों नेता निःशस्त्र रहेंगे और उनके साथ एक सलाहकार और दो अंगरक्षक रहेंगे. एक अंगरक्षक तलवार तो एक धनुष बाण से लैस होगा. लेकिन शिवाजी ने दुश्मन के इरादों को भांपते हुए सादे वेश में जगह जगह पर अपने कुशल सैनिकों की तैनाती कर रखी थी और उनलोगों को विरोधियों की हरकतों पर पैनी नजर रखने के निर्देश दिए गए थे. खुद सतर्क शिवाजी ने सुरक्षा के तौर पर कपड़ों के नीचे लौह कवच और पगड़ी के नीचे स्टील का “हेलमेट” पहन रखा था. हांथों में बाघनख पहने और बिछवा छिपाए (एक प्रकार का चाकूँ जैसा जैसा हथियार) शिवाजी ने दुश्मनों को भरपूर चकमा दिया. यहां थोड़ी अफ़जल खान की शारीरिक बनावट की भी बात कर लें क्योंकि ये जरूरी है. वो काफी लंबा, चौड़ा, हष्ट-पुष्ट और एक मजबूत अफगान था. एक बार युद्ध के बीच मे उसकी तोप कींचड़ में फस गई जिसे उसके आठ सैनिक मिलकर भी न निकाल सके थे उसे उसने एक हाँथ की ताकत से खींच लिया था. उसके ताकत की एक बानगी हम आगे भी देखेंगे.
तय समय पर नियमानुसार दोनों दल पहुंचे और अफ़ज़ल खान ने शिवाजी को औपचारिक रूप से गले लगाया. लेकिन ये क्या ? उसकी पकड़ शिवाजी पर और कसती चली जा रही थी. वो शिवाजी की गर्दन पकड़ कर ऊपर उठाने लगा. उससे कद और शरीर मे छोटे शिवाजी की सांसें फूलने लगी और वो बेहोश की अवस्था मे जाने ही वाले थे लेकिन उनके कवच के कारण उन्हें सम्भलने का मौका मिला. अब प्रतिक्रिया की बारी थी और वो भी स्फूर्ति और तेजी के साथ एक सधी हुई प्रतिक्रिया. शिवाजी ने उस अवस्था मे भी अचानक से पलट कर बघनखे से उसकी छाती चीर डाली और बिछुए से एक जबरदस्त वार किया. अपने मालिक को तड़पता देख उसके अंगरक्षक सैयद बन्दा ने शिवजी की पगड़ी पर जबरदस्त वार किया लेकिन उनके जीवनरक्षक बन कर सामने आए उनके अंगरक्षक जीवा महाला जिनका नाम आज भी काफी आदर के साथ लिया जाता है. जीवा ने सैयद की दायीं हाँथ को काट डाला और उसे 72 हूरों के पास पहुँचा दिया. घायल अफ़जल खान के सैनिकों ने उसे पालकी में बिठाकर अपने दल की ओर ले जाने की कोशिश की लेकिन ऐन वक्त पर सम्भाजी कविजी जी ने हमला कर उसे मार डाला. इस तरह बीजापुर सल्तनत के सेनापति का अंत हो गया जिसने आदिलशाही से मुगल साम्राज्य तक को हिला डाला.
शिवाजी यहीं नही रुके बल्कि उन्होंने प्रतापगढ़ पहुंच कर अफ़जल के बाकी सैनिकों पर अचानक हमला करने का निर्देश दिया. इस तरह से प्रतापगढ़ के इस युद्ध मे शिवाजी को भारी विजय मिली.
#HappyBirthdayShivaji #Shivaji